पैले , हिजो , आज सदा मनपराएँ
त्यताबाट चल्ने हावा मनपराएँ
इन्कारको तिम्रो कला मनपराएँ
प्यार , प्यारो नै भो घ्रिणा मनपराएँ
रिस , छल , खिसी सारा मनपराएँ
लुकेको त्यो प्यार खुला मनपराएँ
उज्यालोको निम्ती सबै तड्पिंदैछन्
घाम छेक्ने केश घना मनपराएँ
माया अझै थप्न दूरी राखौं भन्यौ
त्यही साँझ भेट्ने बिदा मनपराएँ
अलि छिटो तिमी राजी भयौ क्यारे !
कता कता !! तडप ज्यादा मनपराएँ
खाए मात्र लाग्ने जहर हो म भन्छु
यो सम्झेरै लाग्ने नशा मन पराएँ
———krishna p. pandey
late khumar barabaikavi को यो तलको गजल सँग प्रभावित भएर यसो!!! लेख्ने कोशीश गरें । सामान्यतया यहाँ प्रयुक्त काफियाको स्थिति(.आ ) लाई सहजै स्विकार्न सकिन्छ भन्ने मान्यतालाई नेपाली गजलमा पनि देख्न चाहन्छु म । अरु कुरा सर्जक , अग्रज र गुरुहरुलाई छोडेँ ।
ये मिसरा नहीं है वज़ीफा मेरा है
खुदा है मुहब्बत, मुहब्बत खुदा है
कहूँ किस तरह में कि वो बेवफा है
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है
हवा को बहुत सरकशी का नशा है
मगर ये न भूले दिया भी दिया है
मैं उससे ज़ुदा हूँ, वो मुझ से ज़ुदा है
मुहब्बत के मारो का बज़्ल-ए-खुदा है
नज़र में है जलते मकानो मंज़र
चमकते है जुगनू तो दिल काँपता है
उन्हे भूलना या उन्हे याद करना
वो बिछड़े है जब से यही मशगला है
गुज़रता है हर शक्स चेहरा छुपाए
कोई राह में आईना रख गया है
कहाँ तू “खुमार” और कहाँ कुफ्र-ए-तौबा
तुझे पारशाओ ने बहका दिया है
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(स्रोत : रचनाकारको फेसबुकबाट सभार )