~दिनेश यादव~
बोली हम्मर विरान नहि छहि,
तईयो पराय मानैत छहि,
हम्मर म्याक भाषिका अपने छहि,
मुदा मान्यता कहा दैत छहि,
हौ बाबु, डका पइर गेलह, अपने भाषा आन बइन गेलह ।
भाषिक दियाद कहैत छहि ई मात्र हम्मर बोली,
जन–हम नहि बुझैत छि ओकर बोली,
अपन लय–भाषा जन–हम्मर शैली,
ओकरा नहि मानैत छहि जन–मानक शैली,
हौ बाबु, डका पइर गेलह, अपने भाषा आन बइन गेलह ।।
भाषाक बन्दरबाँट जारी छहि,
एहि नामपर दूकान सेहो निक चलै छहि,
भाषिक बनियाँसभ लुटैट–लुटैट तवाह छहि,
मुदा भाषा हमर ठामेठाम छहि,
हौ बाबु, डका पइल गेलह, अपने भाषा आन बइन गेलह ।।।
भाषा एकदूसरके जोडैयवाला माध्यम थिक ,
लोकसंस्कृति आ लोकगााथा एकर शाखा थिक,
नटुवा बजनिया एकर प्रचारक थिक,
तईं ओकर परम्परागत शैली कियैक नहि ठीक,
हौ बाबु, डका पइर गेलह, अपने भाषा आन बइन गेलह ।।।।
अपने धाइम, अपने डाइनक लिला बहुत केलह तों,
गोसाई आ महरा सेहो बहुत केलह तों,
आब जन–जनके स्वीकारह तों,
भावत आब समटह तों,
हौ बाबु, डका पइल गेलह, अपने भाषा आन बइन गेलह ।।।।।
(स्रोत : रचनाकार स्वयंले यसै सङ्ग्रहालयको ‘नयाँ रचना पठाउनुहोस्’ बाट सम्प्रेषण गरिएको ।)