~कृष्णराज सर्वहारी~
२०३२ सालमे त्रिचन्द्र कलेजमे पढेबेर विद्यार्थी आन्दोलनमें जेलजीवनके पहिला भोगाई ढकाल ऊ लेखमें लिख्ले बटाँ । संकटकाल लग्लकवाद बहुत धेर मनैं हिरासतमे अनुभव अपन मनके सन्दुरखमे कैद कैले हुइहीं । मै फेन कौनो दिन हिरासतमे एक रात मामनघर पहुनी खैना मौका पैले रहँु । ऊ पहुनाईक बयान आझ कर्नास लागटा । पुरान क्यालेण्डरके पन्ना विल्टैलेसे ऊ दिन २०६० फागुन ३० गते रहे । मैं राजधानीक छापा पत्रकारिता छोरके नेपालगञ्ज रेडियो पत्रकारिता करे आइलक एक महिना वित सेकल रहे । थारु भाषक \’हमार सहीदान\’ रेडियो कार्यक्रमके मै मुँरी रहँु । यी कार्यक्रमके लाग रेडियो नाटक फेन तयार पार जाए ।
रेडियो नाटक टोलीके अगुवा वर्दिया कर्मलक धनीराम चौधरी रहिंत् । उहाँ आपन नाटक सदस्यनसे छलफलमे व्यस्त रहिंत् । घडीक र्सुइ सन्झ्याक साढे चार बजैले रहे । पाँच बजे नाटक रेकर्ड कर्राई जैना बलौवा आईल रहे । उहे ओरसे मै आपन रिपोर्ट छोरछारके नाटकके अन्तिम रिहर्सल सुने नाटक को म जाइक तन बाहिर निकर्नु । यी का अचम्म ! हमार रेडियो कार्यक्रमके अफिस पूरा घेरल रहे, सुरक्षाकर्मीनसे । बाहेर ओइनके गाडी रयाइल रहे । एकथो पुलिसवा पुँछल धनीराम चौधरी यहाँ काम गर्नु हुन्छ ?
मै मुँरी हिलैलुँ ओ कोा देखादेलुँ । ऊ जनाइल उपरसे एक घरिक लाग बलौवा आइल बा, कुछ सोधपुछके लाग । नाटक टोलीक सदस्यन सब जाने जाइ परल । ओइसिन खबर सुन्तीकि संघरियन लल्माक टुलुक होगिलाँ । ओइने महींसे हाँ जोर विन्ती कर्लां र्सवहारी सर अपने फेन हाकिमके नाते संगसंगे चले परल । का का पुँछा ते अपने बात सँपारदेवी ।
अपनेनके जाइल करी, मै आ जैम । मै ओइसिन जवाफ डे सेक्टुँ लेकिन संघरियनके बात काटे नै सेक्लुँ । महुँ ओइनसँगे गाडीम बै गैनुँ । सोच्लुँ, लैजिहीं कहाँ – क्षेत्रबीय प्रहरी कार्यालयमे लैजिही ते उहाँ मोर गाउँक भैया गीता प्रसाद चौधरी असइ बा । जिल्ला प्रहरी कार्यालय लैजिही कलेसे साह्रुक दादु पुनाराम चौधरी बताँ । जरुर बात सुनहीं । लेकिन हमरिहिन गाडी धम्बोजिक विरेन्द्र व्यायामशालाके भित्तर छिराइल ।
शुरुमे हम्रे उहाँक चौरमे बै के गल्बे सल्बे बत्वाई लग्ली । कुछ दिन पहिले जनवादी गायक नारायण योगी महिंसे भेट करे आइल रहे । धनीराम आशंका करलाँ कि उहे गरिवाँ कुछ उल्टा पुल्टा बत्वा देहल । हमरिहिन एकघरी रैहके सुरक्षाकर्मीलोक अपन सुरक्षार्थ बनाइल माटिक घेरा लगाइल ट्रेन्च ओर लैगिलाँ । छुटुमुटु खोभल्टीमे पानी ओरैटी गैल मच्छीहस हम्रे फरफरैती रही । लैगैलक एक घण्टा बितगैल । लेकिन कौनो सोधपुछ नै हो । मै दर्ुइ तिन बेर ओइनके हाकिमनसे महीं भेट करवा देऊ कैहके हम्रहिन घेरले रहल सुरक्षाकर्मीनसे अनुरोध कर्नु लेकिन कौनो सुनुवाई नै हुइल । मोबाइल रहत ते कत्रा गँ ट, कमसेकम संघरियन फेान कैके हम्रे यहाँ बटी कैहके बताई ते सेक्जाइट् । महीं मोबाइलके सम्झना हुइल लेकिन अभिन तक ऊ चिंगौरा मोबाइल किने नै सेक्ले हुँ ।
मच्छर यी मेर काटे लग्लाँ कि रहुवास नै हर्ुइ लागल । संगेसंगे रही गुलरियक भौजी डिलकुमारी ओ बाँके बैजपुरके रानी द्रुपती । ओइने दुनुजाने रोहन छोहन मुँह लगैले रहिंत् । मै एक्को घरी नै पानी पिना ओ तुरुन्त मुट्ना नै मजा रोग पल्ले बतुँ । मुतास लागगैल । पुलिसवा संगसंगे मुताइ लैगिल । कहल हर्ुइ भाग ना जाए । दिनभर कुछ नै खैले रहुँ । भग्ना शक्ति नै रहे । फेन कौनो गल्ती नै कैलमें डरके मारे भग्ना बाते नै रहे ।
हम्रहिन मच्छरनसे कट्वा पाईत देखके एकथो पुलिसवाहे सायद सोग लग्लीस् । ऊ जुटके बोरक लसरी जराके हमार पन्ज्रे धै देहल । करिब दर्ुइ घटक बाद धनीरामके आँख करिया लुग्राले बाँधके खै कहाँ लैगिलाँ । मही वर्दिया जोगिगाउँक संघरिया सीमलाल, बैजापुरिक पेन्डुलिया, कल्लुराम, दिलकुमारी ओ रानी द्रुपतिहे फेन गाडीमे सौरे कहिगिल । गाडी ज्रि्रका भित्तर छिरल । अत्रा ते मालुम हो गैल रहे कि ओइने धनीरामहे अफिसमे खोज्ती अइलक ओ हमार बगालेमसे हिगारके लैगिलक ओरसे पक्राउके मुख्य मनैया उहे हुइत लेकिन कारण पता नै रहे । महीं लागल सके अब्बे यहजुने नै ते सकारे विहानी हम्रे जरुर छुटजाबी । मै ज्रि्रकामे जैती साइद चिन्हल पुनारामहे खोज्लुँ । नै मिल्लाँ । कल्लुरामहे कहलिस भन कति मान्छे मारिस् । दिउँसो दिउँसो नाटक खेल्ने, राती राती मान्छे मार्ने ?
मै शब्दमें कुछ बढता उच्चारण कैके कहलुँ – हर्ेर्नुस त्यसै आरोप नलगाउनुस । सबै मेरो नाटक टोलीका सदस्य हुन् । म एक जिम्मेवार पत्रकार हुँ । ल हर्ेर्नुस आइडेन्टी कार्ड । ऊ झोक्का गैल । मोर कार्ड थुटल । ओ झङ्ल्याङ्ग झुङ्लुङ्ग पो लागल । मोर झुलुवाले आँख बाँधल, आऊर जन्हनके फेन । बस दनादन ले भैंस पिर्टाई । बडो पत्रकार हुने भाको – तँ गलत बाटोमा नलाग्या भए किन ल्याउँथे यहाँ – नेपालगञ्जमा सयौं पत्रकार छन् । खै अरुलाई त यहाा ल्या छैन –
मारके आगे भूत भागे । आब बोलना डगर हेरागैल रहे । हम्रहिन एको कोामे करिया गैल । एक घरी रैहके बेरी आइल । ओकर पैसा हम्रहिन तिरे पर्ना कैह गैल । लेकिन बेरी भित्तर छिरजैना ते बाते नै रहे । मै बरवार मर्चक कचौरा उैलुँ । कैह बै ल एक्थो पुलिसवा कि थारुहरु धेरै खर्ुसानी खान्छन् । लतरपटर भात दुथा गैल । एक कोन्टीमसे निकारके दोसर कोन्टीम पिट्टी ढकेल गैल । आँखीम झुलुवक पट्टी बाँधल रहे । मै व्रि्राके खोल मर्लुं । ओकर पुरस्कार स्वरुप घोंच्चारीम फेन एक ल मिलल । ओ्से पट्टी खोल्ना सवाले नै रहे । जिउ चेतगैल ।
रात १० बजल रहे । मोर नियमित मुटना समय । आपन नियमित सुतलक विस्तारा बदल जाइ ते निंद नै परथ् कलेसे यहाँ ते झन विस्तारा जो नै रहे । सुतक कलाँ को म काोकल रहे । ओकर तरे छुछरुन यी मेर हरवराइत कि जानो कानेम पै जैही । रात छिप्ती गैल । जुरार लागल, मच्छर पाँच पाँच सेकेण्डमे गलचुम्मा लेहे लग्लाँ । सोमलाल संघरिया बारम्बार कहिंत – अपने ते पत्रकार हर्ुइ सर, सकारे छुटउट जैबी । लेकिन अक्केली छुटक मन ना कर्बी । सक्कु जाने संग्गे छुटब कहबी । मै फेन उहाँहे दारस दिउँ । सम्मस रात गुनमुन सुनमुनमे वितगैल । उहे को म चर्पी रहे । मै ५ बजे ओर छिर्लु । चर्पीम आँख खोल्लुँ । बरा फछर््वार लागल । बाहेर पुलिस कवाज खेती रहिंत । बरा घरी ओइनके क्रियाकलाप हेर्लु । भित्तर आँख बाँधल बै ल रनासे मही चर्पियम रहना मजा लागल । अत्रबा गन्धौरी चर्पीक, फेन कौनो प्रवाह नै रहे ।
बाहरसे एको पुँछल, ए ! तिमीहरुको एउटा साथी खै हँ – भाग्यो कि क्या हो – मै हडरबडर आँख बँध्लुँ ओ चर्पीमसे निकर्नु । विहान ७ बजेसे मै तालिमके लाग छटपर्टाई लग्नु । होटल बुद्धमे रेडियो पत्रकारिता सम्बन्धी तालिम रहे । हाँेम घडी नै रहे । पेटार, पर्स, डटपेन, गोझुमका सब सामान रातीए ओइने खँढियाई लगैले रहिंत । मोर गोझुम करिब १० हजार रुपिया रहे । भर्खर तलब बुझ्ले रहुँ । सोंचु ना हो, रुपिया ना झिंकलित कोह्रिन । ८ बजे ओर चाय आइल । लेकिन आँखक पट्टी विना खोलल चाय पिए कैह गैल । आवाज चिन्हल हस लागल । जा ते परे कैहके पट्टी खोल्लँ । चिन्हल अर्सइ पुनाराम रहिंत्, मै हुँकहिन कलुँ – कम्तीमे आँखक पट्टी ते खुल्वा दि । ऊ हमार पावर नै हो कैहके विवशता जनैलाँ । मै पट्ट िबाँधल संघरियन हेर्नु । फुरे सब माओवादी दल विल्गैलाँ । मही हाँसी लागल लेकिन आपन आँखीम पट्ट िबाँधल देके जे ते आए सबजे कहिंत माओवादीहरु पक्राउ परेछन् कहिके ।
१० बजेओर एकथो पुलिसवा पट्ट िखोले कहल ओ नाउँ गाना टिपल, सही करवाईल । महीं लागल आब हम्रे छुटी जाब । साढे ११ बजे ओर अर्सइ भाई गता अइलाँ ओ सँगे जे ान बामेश्वर अइलाँ । हम्रहिन बुझल्क सही कर्लां । मही पुलिसवा भैयक मुँहफेन हर्ेनास नै मन लागल । सब पुलिस अस्ष्टे हुइँत् । मोर मुँहेमनसे यी शब्द निक्रल । छुटलक सक्कु संघरियन घरे घरे जैना कैहके रिक्सा पकर लेलाँ । मै रिक्सावालाहे कहलुँ – बौद्ध होटेल जाउँ ।
कीर्तिपुरके साँकिर कोन्टीम बै के जब जब मै नेपालगञ्जहे सम्झुँ तब तब हिरासतमे \’बडा पत्रकार भएको\’ कहटी पुलिसवक डण्डा पि ीम वर्षक झलझल झलझल सम्झुँ ।
यी पंक्ति लिखेबेर मोर हाँथेम संघरिया नारायण ढकालके यात्रा ओ संस्मरणके किताव \’शोकमग्न यात्रीहरु\’ बा । जौन कितावक दुसरा लेख \’हिरासतमा तीन दिन\’ मै भर्खर पढके ओरवैनु ।