स्वार्थेबस मानव उजारलक ओ जङ्गल ।
तैं धरती पर देखल चहुँदिश अमङ्गल ।।
ठण्ढी में कनकनी गर्मी में अधिक गर्मी ।
नदी नाला के आब बन्द भऽ गेल सर्बी ।।
बिन मौसम मे वर्षा कतहुं खसे ठनका ।
भेल पाथरे सँ घायल जीवजन्तु उपरका ।।
खेत भेल बालुबुर्ज कम किसानक उबजनी ।
खर्चा भेल रुपैया अछि आम्दानी अठन्नी ।।
कोयलीक कुहुंकुहुं पपीहाक पिहुंपिहुं ।
मुश्किलेसँ सुनी चिरैयाके चिहुंचिहुं ।।
देशक धन थीक हरियर वन जङ्गल ।
रोपु सब मिलि धरती पर छायत मङ्गल ।।
विनीत ठाकुर
मिथिलेश्वर मौवाही–६, धनुषा
(स्रोत : रचनाकार स्वयंले ‘Kritisangraha@gmail.com‘ मा पठाईएको । )