देख वृकति यही देशके,
दिनानु दिन विग्रले जाय अपन मधेशके ॥
सब एक जुट निर्माण करब स्वदेश के,
हरियर आवास बनायब अपन मधेशके॥
देख वृकति…
बेर बेर ज्वाला दनका बैत रहब एहि अवशेषके,
स्वतन्त्रता दिलावे करब अपन मधेशके॥
देख वृकति…
धोती गमछा आ पाग सन सनेशके,
हेयौ शान बदायब अपन मधेशके॥
देख वृकति…
देख छल कपटी अपना वेशमे,
काकोर सनँ चपाईठ रहल अपना मधेश के॥
देख वृकति…
@रचानाकार
# गजेन्द्र गजुर(राय)
हनुमान नगर
(स्रोत : संग्रहालयकै एक कविताको टिप्पणीमा प्रेषित गरिएको । )
मैथिलि कविता:ओ शान्ति छि’
૨૦૧५-૨-०८
सर्वत्र सँऽ भगाय ल,
मधेश मे आइब नुकाय ल,
तबो जे छिन लेल क,
ओ शान्ति छि ॥
जनह तन युद्ध-एनह गोहारि,
गर्दमगोल भ पडय मारि,
अन्तमे छाती मे समालि, बाकी रहल,
ओ शान्ति छि ॥
अपने भाइ भैयारीमे दमन झारैति,
मधेश सँ शान्तिक झण्डा उखारैति,
बचा के जे छातीमे दबायल,
ओ शान्ति छि॥
रोँ जखनि तखनि धमकावे बमक धक्का,
गर्दनिया द पडल ओकर मुक्का,
एहिना प्रहार सँ घायल,
ओ शान्ति छि॥
@साहित्यकार
गजेन्द्र गजुर
हनुमाननगर-२
सप्तरी