वृद्ध–वृद्धा थिक घरक बडेÞरी छथि समाजमे देव समान ।
सदा ओ सोचथि सभक हिक करथि जन–जनकेँ कल्याण ।।
कौवा कुचरऽसँ पहिने उठिकऽ गावथि नित भोर पराती ।
टोल परोशक निन्नकेँ तोरैत जगावथि बेटा, पोती, नाती ।।
पोछैत पसिना जुवानीमे केलनि नहि ओ रौदक परवाह ।
मेहनतसँ पोसलनि संतानकेँ कम नहि भेलनि उत्साह ।।
कर्मसँ जोड़लनि धन–सम्पैत करत बौआ आगु जा सुख ।
घुमल कोना समयकेँ पहिया भेटल बुढ़वाकेँ दुखे–दुःख ।।
पूत कपूत तऽ कि धन संचय बेटा पुतहुँ भेल अकान ।
कुहरैत बुढ़वाकेँ केँदून टेरे सुते साँझे मुनिकऽ कान ।।
सोँचु यौ मानव मातु–पिताक चरण छी वट–वृक्षक छाया ।
पाएव अहाँ पूण्यक अनुभूति जुड़ाकऽ हुनकर काया ।।
विनीत ठाकुर
मिथिलेश्वर मौवाही–६, धनुषा
(स्रोत : रचनाकार स्वयंले ‘Kritisangraha@gmail.com‘ ईमेलमा पठाईएको । )