ऐना केँ कि मोल आन्हर केँ शहर मे ।
भेल उन्टा मुँह सुन्टा अपने नजरि मे ।
ज्ञानक शुरमा लगाकऽ जे बजबैय गाल ।
व्यवहार में देखल ओकरो उहे ताल ।।
मोन भितर केँ दर्पण सेहो अछि चूर–चूर ।
एतऽ सँ मानवता भागल अछि कोशो दूर ।।
घुमे दिन मे लुटेरा ओढि सज्जन केँ खोल ।
कतऽहुँ देखल मृत्यु कतऽहुँ बाजे ढोल ।
जे समाज सुधारक ओ करैय किसुनकेर ।।
ओकरे पाछु मुसना कहबैय सवाशेर ।।
जा धरि नहि हाएत मोनसँ मद्यपानक नाश ।
करत लोक कोनाकऽ विनीत भावक आश ।।
विनीत ठाकुर
मिथिलेश्वर मौवाही–६, धनुषा
(स्रोत : रचनाकार स्वयंले ‘Kritisangraha@gmail.com‘ ईमेलमा पठाईएको । )