थारू भाषी कविता : खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

~लक्की चाैधरी~

बजारमे हल्ला बा,
कति हुँ
आइल बा भ्यालेन्टाइन !
एहोर ओहोर हेर्नु
कोनुवा कप्चा निहर्नु
नै लागल नजर कहुँ
मनहे पुछ्नु
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

बजार चोक
चिया पसल, सडक गल्ली
चारुओर बात सुन्थुँ
पत्रपत्रिका, अनुहार पुस्तिका
सक्कुओर
ओक्रे चर्चा सुन्थुँ
मने काजे,
मै नै चिहन्थुँ
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

लाल गुलाव हुँ
प्रणयके कार्ड कति,
चकलेट, घडी बम्पर उपहार
खै का का हो का का ?
सबजे ओक्रे प्रतिक्षामे
हात हातमे उपहार लेले
लाइन बैठतैं बजारमे
तौनफे मै नै देखथुँ
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

चौध फेब्रुअरीमे आई कैके
ओक्रे प्रतिक्षामे बैठनु
विहान्ने लहाखोरके
लावा लुगरा लगाके
हातमे गुलाव लेले
खोब कुर्नु,
तौनफे
नै आइल भ्यालेन्टाइन ।
हातके गुलाव सुखगिल
प्रतिक्षाके घडी मेटगिल
विहानसे रातसम
ओक्रे बटियाँ हेर्नु
नै आइल तो,
फेन मनहे पुछनु
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

सपिङ मल, पार्क बजार
सिनेमा हल, रेष्टुरेन्ट
जहोर हेर्नु लौण्डालौण्डीन
उँक्वारभेट करत देख्नु,
हमार गाउँमे त
सम्धी–सम्धी उँक्वारभेट लागैं
बजारमे त
लौण्डा–लौण्डी लग्थैं
सोच्नु,
बजारमे बहुत सम्धी बातैं
उँक्वारभेट किल कहाँ
गालेम चुम्मा खाइत देख्नु
लौण्डा–लौण्डीनके
उँक्वारभेट कत्रा धेउर ?
हैरान होके पुछनु
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !?

प्रतिक्षा कैके मिच्छागिनु
झिसमिस्से अन्धार होगिल
एकथो लौण्डाहे पुछनु
भैया,
भ्यालेन्टाइन कब आई ?
लौण्डा अकमका गिल,
हँस्ती कहल–
भ्यालेन्टाइन त मरगिल
फाँसी लगादेलिस ।
ओकर बात सुनके मै निरास
दिनभरके प्रतिक्षा बेकार
हातके गुलाव बेकार
समय ओ पैसा बेकार
लौण्डक् बात सुनके
मन निराश हुगिल
विचरा ! भ्यालेन्टाइन
का विगार करल रहे ?
काजे फाँसी लग्वा पाइल ?
प्रश्नके पोकिया मनमे लेले
गैनु कोठामे सिहरल
विन बेरी खैलै
विस्तारामे पसर गिनु
सपनामे फेन पुछ्नु
खै, कहाँ बा भ्यालेन्टाइन !!?

– उर्मा –४, कैलाली

(स्रोत : मार पहुरा डट कम)

This entry was posted in थारू कविता and tagged . Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.